आसाम के तेजपुर शहर से कोई पन्द्रह किलोमीटर दूर, चाय बागान के किनारे बसी एक छोटी-सी बस्ती का नाम है- सोनाभील। ‘सोनाभील टी एस्टेट’ में काम करने वाले चाय-बागानी मुख्य रुप से इस बस्ती में रहते हैं।
यहीं कुसुम रहती थी। जब की यह कहानी है, तब उसकी उम्र सोलह-सतरह के करीब थी। वह एक साधारण लड़की थी।
सन् चौहत्तर की बरसात।
हरे-भरे सोनाभील को बरसाती हवाओं के थपेड़ों, उमड़ते-घुमड़ते बादलों और रह-रह कर होने वाली बूँदा-बाँदी ने रमणीय बना रखा था। टी एस्टेट के मैदान में ‘बिहू’ नाच की प्रतियोगिता चल रही थी। आस-पास के स्थानों से आई लड़कियों व नवयुवतियों की टोली बारी-बारी से ‘बिहू’ नृत्य प्रस्तुत कर रही थी। चारों तरफ गोल घेरा बनाकर लोग आनन्द ले रहे थे।
अपनी सहेलियों के साथ कुसुम भी एक किनारे खड़ी नृत्य देख रही थी। अपनी माँ के कहने पर उसने आज पहली बार साड़ी बाँधी थी, जो उससे सम्भल नहीं रही थी।
अचानक हवा का एक तेज झोंका आया और उसके पल्लू ने उड़कर एक नवयुवक के चेहरे और माथे को ढँक लिया। वह नवयुवक पीछे कुर्सी पर बैठा ‘बाजा’ यानि रेकॉर्ड-प्लेयर बजा रहा था। हड़बड़ाकर उसने पल्लू हटाया और कुसुम की ओर देखा। कुसुम ने भी माफी माँगने वाले अन्दाज में उसे देखा। कुसुम के अल्हड़पन को देख वह नवयुपक हँस पड़ा। कुसुम बहुत शर्माई। बाद में उसकी सहेलियों ने उसे बताया- तेरे पल्लू ने उसका माथा ढका है, सो अब वह तेरा हो गया।
उस नवयुवक का नाम सोहनलाल था। उसके भैया बस्ती के ‘महाजन’ व्यक्ति थे। लोग उन्हें ‘लाला’ कहा करते थे। इलाके में उनकी अच्छी धाक थी। दसवीं पास करने के बाद सोहनलाल विज्ञान विषयों के साथ आगे पढ़ाई करना चाहता था। मगर उसके भैया-भाभी ने उसे घर के व्यवसाय में लगा दिया था। ऐसे भी, उसकी भाभी उसके प्रति सौतेला भाव रखती थी। इस प्रकार, पढ़ाई छोड़ सोहनलाल परचून की दुकान पर बैठने लगा था।
‘बिहू’ वाली घटना के बाद कुसुम और सोहन दोनों एक-दूसरे की तरफ आकर्षित हो गए। किसी-न-किसी बहाने दोनों आपस में मिलने लगे।
कुछ दिनों की मेल-जोल के बाद जब सोहन ने कुसुम के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा, तो एकबारगी कुसुम को यकीन नहीं हुआ। बस्ती में, और आस-पास में, पहले ऐसी कई घटनाएं घट चुकी थीं, जब महाजन के घरों के लड़के शादी की बात कहकर चाय-बागानियों की लड़कियों के साथ शारीरिक सम्बन्ध बना लेते थे और बाद में उन्हें छोड़ देते थे। ऐसी लड़कियों की जिन्दगी खराब हो जाती थी। इसलिए एक ओर तो कुसुम डर रही थी, दूसरी ओर मन था कि सोहन के आकर्षण से मुक्त नहीं हो पा रहा था।
कुछ महीने बीते। सोहन अब कुसुम के घर भी आने-जाने लगा था। कभी-कभी तो वह अपने घर जाने के बजाय वहीं रुक जाता। अंजाम वही हुआ जो ऐसे में होता है। कुसुम अब बिनब्याही सोहन के बच्चे की माँ बनने वाली थी।
कुसुम के माता-पिता तो सीधे-सादे व्यक्ति थे, मगर उसका मामा एक खूँखार आदमी था। उसने दोनों को घर में घुसने से मना कर दिया। बस्ती से बाहर एक छोटी-सी झोपड़ी किराए पर लेकर दोनों वहीं रहने लगे।
सोहन के भैया लाला को जब इसकी खबर लगी तो वे आग-बबूला हो उठे। लेकिन वे यह भी जानते थे कि सीधे-सीधे दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। अतः काम दिलवाने की बात कहकर उन्होंने सोहन को घर बुलवाया। वहाँ उन्होंने सोहन को एकबार राजस्थान चलने को कहा। सोहन समझ गया कि कुछ चाल है, मगर उसने यह भी देखा कि उसे काबू में करने के लिए दो आदमी पहले से घर में मौजूद हैं। वास्तव में लाला ने गुपचुप तरीके से राजस्थान में उसकी शादी तय करवा दी थी।
सारा परिवार ट्रेन से रवाना हुआ। रात हुई। मगर सोहन की आँखों में नीन्द कहाँ? उसे तो कुसुम की चिन्ता खाए जा रही थी। आधी रात के वक्त जब सबकी आँखें लग गईं, एक छोटे-से स्टेशन पर वह चुपके से उतर गया। संयोग से वापस गौहाटी जाने की ट्रेन दूसरे प्लेटफार्म पर खड़ी थी। वह उसी में सवार हो गया।
उसके जेब पैसे नहीं थे। किसी प्रकार, लोगों की सहायता से वह सोनाभील तक पहुँचा।
इधर झोंपड़ी में कुसुम का रो-रो कर बुरा हाल था कि सोहन उसे मँझधार में छोड़कर कहाँ चला गया। उसे तरह-तरह के बुरे ख्याल आ रहे थे। ऐसे में किसी ने दरवाजा खटखटाया। खोलकर देखा तो हैरान परेशान सोहन खड़ा था। दोनों एक-दूसरे से लिपट कर खूब रोए।
इधर ट्रेन से सोहन को गायब देखकर लाला सब समझ गए। अगले स्टेशन से उन्होंने सोनाभील में अपने रिश्ते के एक भाई राधेश्याम को फोन किया। योजना बनी। और थाने में रपट लिखा दी गई कि सोहनलाल घर के जेवर व नकदी लेकर फरार हो गया है। सोहन की खोज शुरु हो गई। सोहन को पता था कि थाने में पैसे दे दिए गए है, इसलिए उसकी नहीं सुनी जाएगी। तीन महीनों तक वह छुपता-छुपाता रहा।
इस दौरान उसकी आर्थिक स्थिति काफी खराब हो गई। लोगों ने उधार देना बन्द कर दिया। उधर कुसुम के माँ बनने के दिन नजदीक आ रहे थे। ऐसे समय में एकदिन पुलिस सोहन को पकड़ कर ले गई।
सोहन की गिरफ्तारी की खबर पाकर कुसुम उससे मिलने के लिए मानों पागल हो गई। उसने अपने माँ-बाप से मदद माँगी, पर वे असमर्थ थे। उनके पिता चाय बगान में पर्ची काटने का काम करते थे- इसी से किसी प्रकार उनके घर का गुजर-बसर चलता था। फिर उसने अपने मामा से मदद माँगी, मगर उसने साफ मना कर दिया।
चारों तरफ से निराश होकर कुसुम पैदल ही तेजपुर शहर की ओर चल पड़ी। भूखी-प्यासी, गिरती-पड़ती वह किसी तरह जेल पहुँची। वहाँ जाकर उसने बताया कि वह सोहनलाल की घरवाली है और वह सोहन के साथ ही जेल में रहेगी। जेल के कर्मचारियों ने उसे समझाया कि ऐसा कोई नियम नहीं है। मगर कुसुम नहीं मानी। वह जिद पर अड़ गई और खूब रोने-धोने लगी। अन्त में उसे वहीं रहने दिया गया। छः दिन वह जेल में सोहन के साथ रही। सातवें दिन उसे जेलवालों ने समझाया कि अब घर जाओ, दो-एक दिनों में सोहन को रिहा कर दिया जाएगा।
कुसुम लौट आई। मगर सोहन रिहा नहीं हुआ। इस बीच कुसुम ने एक बच्ची को जन्म दिया। इसके बाद वह फिर जेल पहुँच गई। कुछ कर्मचारियों ने पसीज कर उसे एक जमानती लाने का सलाह दिया।
सोनाभील गाँव में लाला के डर से कोई भी व्यक्ति सोहन की जमानत भरने को तैयार नहीं था। अन्त में एक मुसलमान युवक ने सोहन की जमानत भरी। सोहन घर लौटा। बाद में केस झूठा होने के कारण वह रिहा भी हुआ।
अब सोहन कुसुम और अपनी नन्हीं बेटी के साथ उसी झोंपड़ी में रहने लगा। मगर सिर्फ प्यार-मोहब्बत से तो जिन्दगी नहीं कटती। उसे काम की जरुरत थी और लाला के डर से कोई उसे काम देने को तैयार नहीं था। झोंपड़ीवाली अपनी किराया माँगने लगी। घर में दोनों में वक्त खाने का ठिकाना न था, उस पर एक छोटी-सी जान- आशा। हाँ, यही नाम था उस बच्ची का- ‘आशा’!
ऐसे बुरे वक्त को सही मौका जानकर लाला ने सोहन के पास अशोक नाम के एक आदमी को भेजा। सन्देश था- अब भी मौका है, कुसुम को छोड़ दो। अगर उससे शादी की, तो सम्पत्ति से बेदखल कर दिए जाओगे। साथ में, पैत्तृक सम्पत्ति में हिस्सेदारी नहीं माँगने का एक हलफनामा भी था। सोहनलाल ने उस हलफनामे पर दस्तखत कर दिए और कामाख्या मन्दिर जाकर रीति-रिवाजों के अनुसार कुसुम से शादी कर ली।
अब सोहन के भैया ने सारी पैत्तृक सम्पत्ति बेच डाली और एक रोज रात के अन्धेरे में घरेलू सामान एक ट्रक में लादकर गाँव छोड़कर चले गए। सोनाभील गाँव का पैत्तृक मकान भी उन्होंने एक साहूकार को बेच दिया था।
सोहन के भैया के गाँव से चले जाने के बाद अब जाकर गाँववालों ने सोहन का पक्ष लेना शुरु किया। गाँववालों ने ही उसके पैत्तृक मकान का ताला खुलवाकर सोहनलाल को उसमें प्रवेश दिलाया। हालाँकि जिस महाजन ने वह मकान खरीदा था, उससे अनबन भी हुई, मगर गाँववालों की एकता के आगे उन्हें झुकना पड़ा। तय हुआ कि सोहनलाल धीरे-धीरे उन्हें उनकी रकम वापस कर देंगे।
इसी दौरान कुसुम ने दूसरी बेटी को जन्म दिया था। चुँकि कुसुम को सही पोषण नहीं मिल पाया था, इसलिए बच्ची भी कमजोर पैदा हुई। उसके हाथ-पैरों में थोड़ी विकृति थी। उसका नाम रखा गया- सुनीता। वह अपने माँ-बाप के सारे कष्टों को अपने ऊपर लेकर पैदा हुई थी। वह सही मायने में लक्ष्मी थी। जन्म लेते ही उसने अपने माँ-बाप को अपना घर दिला दिया। और इसके बाद सोहनलाल के दिन फिरने लगे।
तेजपुर शहर से साईकिल में सामान लाकर आस-पास के गाँवों के दूकानदारों तक पहुँचाने का काम सोहनलाल ने शुरु किया। उसकी मेहनत और ईमानदारी रंग लाई। उसका काम बढ़ने लगा। घर में खुशहाली आने लगी।
आज की तारीख में उनका अपना टेम्पो है, जिसमें वे सामान लाते हैं। उनकी तीन बेटियों- आशा, सुनीता और अम्बिका की शादी हो चुकी है। सबसे छोटी बेटी आरती कॉलेज में पढ़ाई कर रही है। बेटा विजय पिता के काम में हाथ बँटाता है। फरवरी (2011) में विजय की भी शादी हो गयी।
कोई भी आसाम के तेजपुर शहर से पन्द्रह किलोमीटर दूर सोनाभील गाँव जाकर उनसे मिल सकता है। जहाँ तेजपुर में, बल्कि सारे आसाम में, गँदले पानी की शिकायत आम है, वहीं श्री सोहनलाल अग्रवाल के घर में गड़ा चापाकल चमकदार साफ पानी देता है!
---:0:---
आत्मकथ्य
1996 में जब मेरे पति वायु सेना स्थल, तेजपुर में पदस्थापित थे, तब हमलोग सोनाभील में श्री अग्रवाल के घर में किराएदार थे। वहाँ हम उनके पारिवारिक सदस्य के रुप में रहते थे। लेकिन फिर भी, हमने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की थी कि श्री अग्रवाल एक मारवाड़ी तथा श्रीमति अग्रवाल एक आसामी क्यों हैं। एकबार उनकी बड़ी बेटी आशा को देखने लड़केवाले आए। मैंने भी मेहमानबाजी में हाथ बँटाया। मेहमानों के जाने के बाद अचानक आशा की माँ रोने लगी। हमें कुछ समझ में नहीं आया। पूछने पर उन्होंने बताया कि जब यह लड़की छोटी-सी थी, तब हमारे घर में खाने के लाले पड़े थे। एक रोज घर में अनाज का एक दाना भी नहीं था.... और यह लड़की भूख के मारे चोकर खा रही थी। आज देखो- यही लड़की इतनी बड़ी हो गई है कि इसकी शादी होने वाली है। उस शाम लैम्प की धुंधलकी रोशनी में पत्थर की मूर्ति बनकर हमने उनके मुँह से उनकी आपबीती सुनी। जितना मुझे याद रहा और जैसा मुझसे बन पड़ा, मैंने लिखाऋ मगर मेरी इच्छा है कि कोई उपन्यासकार एक बार जाकर उनलोगों से मिले और उनकी आपबीती पर एक उपन्यास की रचना करे।
-श्रीमति अंशु शेखर
-----------------------:0:-----------------
(टिप्पणी: एयर फोर्स एसोशियेशन की गृहपत्रिका "ए.एफ.ए. न्यूज / ईगल्स आई" के अप्रैल'11 के अंक में यह रचना प्रकाशित हो चुकी है।)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें