शनिवार, 17 सितंबर 2011

"स्निग्धा ग्रह के वासी" –एक काल्पनिक कहानी

(मेरी यह कहानी "विज्ञान प्रगति" के जून'2009 के अंक में प्रकाशित हुई थी.)





सन् 2050 ईस्वी।
            मध्यपूर्व की भीषण लड़ाई के बाद सं.रा. अमेरिका और एकीकृत यूरोप जर्जर हो चुके हैं; चीन में छात्रों के नेतृत्व में लोकतंत्र कायम हो चुका है; ब्रिटेन उत्तरी अटलान्टिक महासागर में डूब चुका है- वहाँ के नागरिकों को पहले ही कनाडा में बसाया जा चुका था; और.... वृहत्तर भारतके नेतृत्व में कायम होने वाली आदर्श विश्व व्यवस्थाअपने अन्तिम चरण में है।
            23 मार्च की सुबह। समय 3 बजकर 50 मिनट।
            चन्द्रमा पर स्थित अन्तरिक्ष स्टेशन ‘‘नीहारिका’’ ने अन्तरिक्ष से आये कुछ सन्देशों को पकड़ा। सन्देश वैदिक संस्कृत में थे। कुछ ही पलों में दुनिया भर में हलचल मच गयी। सन्देश का तात्पर्य कुछ यूँ था कि स्निग्धानामक ग्रह का अन्तरिक्षयान ‘‘चैतन्य’’ ब्रह्माण्ड का नक्शा बनाने के काम पर निकला हुआ है और वही यह सन्देश प्रसारित कर रहा है। सन्देश में दूसरी तकनीकी जानकारियाँ भी थीं, ताकि अगर कोई चाहे, तो सहजता से उत्तर दे सके।
            कोई बारह घण्टों की मशक्कत के बाद नीहारिकाके खगोलीय दूरबीनों ने उस अन्तरिक्षयान यानि ‘‘चैतन्य’’ को खोज निकाला। वह पृथ्वी से करीब 10खरब, 14अरब, 26करोड़, 40 लाख किलोमीटर दूर था और एक लाख किलोमीटर प्रति सेकण्ड की प्रचण्ड रफ्तार से हमारी आकाशगंगासे दूर जा रहा था।
            उसी वक्त, यानि शाम चार बजे करीब उसे वैदिक संस्कृत में उत्तर भेजा गया कि उसका सन्देश पा लिया गया है। साथ ही, आकाशगंगा के अन्दर पृथ्वी की स्थिति की जानकारी भी दी गयी।
            ‘चैतन्यजिस रफ्तार से धरती से दूर जा रहा था, उससे अनुमान लगाया कि लगभग 58 दिन, 17 घण्टे बाद 21 मई के दिन ही उसे धरती का सन्देश मिल पायेगा। और फिर, जब वह उत्तर भेजेगा, तो उसे भी धरती तक पहुँचने में उतना ही समय लगेगा। यानि धरतीवासियों के पास प्रायः चार महीनों तक इन्तजार करने के अलावे और कोई चारा नहीं था। ये चार महीने बड़े तनाव और अटकलों की दौर के बीच गुजरे।
***
            19 जुलाई का ब्रह्ममुहुर्त।
            ‘चैतन्यका सन्देश आया कि उसने धरती की ओर बढ़ना शुरु कर दिया है और अगले 6लाख, 33हजार, 900पलों के बाद वह धरती पर मौजूद होगा! चुँकि जिस वक्त चैतन्यको धरती का सन्देश मिला होगा, उस वक्त धरती से उसकी दूरी 15खरब, 21अरब, 36करोड़ किलोमीटर रही होगी और उसकी गति तो ज्ञात थी ही; अतः अनुमान लगाया कि वे 24 सेकण्ड को एक पल मान रहे हैं। खैर, उनके अवतरण का दिन निर्धारित हुआ- 13 नवम्बर!
            भारतीय प्रधानमंत्री ने 25 जुलाई को ही आदर्श विश्व व्यवस्थाका आपात्कालीन सत्र बुला डाला। दुनिया के राष्ट्राध्यक्षों के अलावे वरिष्ठ खगोल विज्ञानियों तथा विश्व सैन्य संगठन प्रमुख अधिकारियों को भी इसमें बुलाया गया। काफी गर्मा गर्म बहस हुई कि अगर ये अन्तरिक्षयात्री मित्रन साबित हुए तो क्या होगा? उन्हें पृथ्वी की स्थिति की जानकारी देकर हमने भूल तो नहीं कर दी? दूसरी ओर, चूँकि अन्तरिक्षयात्रियों ने वैदिक संस्कृत का प्रयोग किया था, अतः उनकी प्रवृत्ति भली होगी- ऐसा मानने वालों की संख्या भी काफी थी। बहस के बाद यह प्रस्ताव पारित हुआ कि चैतन्यके स्वागत की तैयारी की जाय, मगर दो किलोमीटर पीछे गुप्त रुप से सेनाओं को भी तैनात रखा जाय।
            चम्बल स्थित तृतीय नेत्रवेधशाला के विशाल प्रांगण को अवतरणस्थल का रुप दिया जाने लगा और धरती पर इसकी भौगोलिक स्थिति की जानकारी चैतन्यको भेज दी गयी।
            समय के साथ चैतन्यके आकार-प्रकार की जानकारियाँ उपलब्ध होने लगीं और पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगीं:
            ‘चैतन्यअन्तरिक्षयान का आकार एक विशाल लट्टू-जैसा था, जिसकी खड़ी ऊँचाई 29 मीटर तथा अधिकतम परिधि 182.28 मीटर थी। ऊपरी ध्रुव से 7 मीटर नीचे अधिकतम परिधि थी और इसी के चारों तरफ 7 मीटर की ही दूरी पर 22 मीटर चैड़ा वलय तैरता रहता था। वलय सहित यान की परिधि बनती थी 364.57 मीटर, यानि मुख्य यान की दुगनी। यान का वलय दक्षिणावर्त दिशा में घूमता था, जबकि यान वामावर्त दिशा में। घूर्णन की गति उतनी ही थी, जितनी कि यान की गति। पर चुँकि यान के दोनों ध्रुव घूर्णन से मुक्त थे, अतः अनुमान लगाया गया कि अन्दर मुख्य यान स्थिर रहता होगा और उसके चारों तरफ का विशेष आवरण घूर्णन में भाग लेता होगा।
***
            13 नवम्बर। दिन के ग्यारह बजे।
            महाकाय चैतन्यने तृतीय नेत्रवेधशाला के विशाल प्रांगण में अवतरण किया। हजारों लोगों ने अपनी आँखों से और दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति ने टीवी स्क्रीन पर इस दृश्य को देखा। मुख्य यान अपनी आठ विशेष टाँगों के बल पर धरती पर खड़ा था; उसका घूर्णन रुक चुका था। हाँ, वलय का घूर्णन धीरे-धीरे शान्त हो रहा था।
            यान से सन्देश आया कि पहले पाँच पृथ्वीवासियों को यान में भेजा जाय, ताकि उनके मस्तिष्क से वे जरुरी जानकारियाँ हासिल कर सकें। कुछ विचार-विमर्श के बाद तीन वैज्ञानिकों तथा दो सैन्य अधिकारियों को यान में भेजने का निर्णय लिया गया। यान से निकले एक लिफ्ट के माध्यम से पाँचों अन्दर चले गये।
            कुछ ही मिनटों के बाद यान का मुख्य दरवाजा खुला और पाँचों पृथ्वीवासियों के साथ अन्तरिक्षयात्री एक-एक कर हाथ हिलाते हुए बाहर निकलने लगे। सारा प्रांगण तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।
            अन्तरिक्षयात्री संख्या में तीस थे- पन्द्रह पुरुष तथा पन्द्रह स्त्रियाँ। वे मनुष्य जैसे ही थे, सिर्फ उनका कद लम्बा था- करीब नौ फीट, शरीर दुबला-पतला था और उनके सिर का पिछला भाग ज्यादा बढ़ा हुआ था। उनका पहनावा लम्बे चोगे जैसा था, ढीला-ढाला। दल के नेता का नाम ऋत्विक था।
            शाम को वैज्ञानिकों तथा धरती के कुछ शासनाध्यक्षों के साथ अन्तरिक्षयात्रियों की बैठक हुई। बैठक के दौरान जो जानकारियाँ हासिल हुईं, वे कुछ इस प्रकार थीं:-
            अरबों वर्ष पहले महाकाशीय विस्फोट के बाद जिन परिस्थितियों में पृथ्वी का जन्म हुआ, ठीक उन्हीं परिस्थितियों में कई करोड़ प्रकाशवर्ष दूर स्निग्धाग्रह का जन्म हुआ। जन्म के बाद की परिस्थितियाँ भी एक समान रहीं। सिर्फ दो फर्क थे- एक, स्निग्धा का आकार छोटा था; दो, वहाँ जीवन के विकासक्रम में डायनासॉरसों का कालखण्ड आया ही नहीं। फलस्वरुप, पृथ्वी पर मानव के जन्मे जहाँ अभी मात्र साढ़े सतरह लाख साल हुए हैं, वहीं स्निग्धा पर आज से 21 करोड़ 18 लाख साल पहले ही मानव चहलकदमी करने लगे थे! 
            स्निग्धा के मानवों ने 15 लाख साल के अन्दर काफी उन्नति की। यह उन्नति आध्यात्मिक थी। वे ऐसी स्थिति में पहुँच गये कि अपने ज्ञान को शक्तिशाली मानसिक तरंगों के माध्यम से सारे ब्रह्माण्ड में प्रवाहित करने लगे। करोड़ों वर्षों बाद यही तरंगें पृथ्वी से भी टकराईं। तब यहाँ के बुद्धिमान मानवों, यानि भारतीय ऋषियों ने उन्हें ब्रह्मा के सन्देशके रुप में ग्रहण किया।
            कालान्तर में स्निग्धा वासियों का झुकाव भौतिक उन्नति की ओर बढ़ गया और वहाँ से प्रज्ञा-तरंगोंका प्रसारण बन्द हो गया। कुछ हजार वर्षों में ही उन्होंने विज्ञान व तकनीक के क्षेत्रों बहुत ज्यादा उन्नति कर ली और वे बड़ी-बड़ी योजनायें बनाने लगे। ऐसी ही एक योजना बनी- ब्रह्माण्ड का नक्शा तैयार करने की। इसके लिए विशेष अन्तरिक्षयान चैतन्यका निर्माण किया गया और इच्छुक वैज्ञानिकों का एक दल ऋत्विक के नेतृत्व में इस दुस्साध्य अभियान पर निकल पड़ा।
            ..........लगभग 21 करोड़ वर्षों की ब्रह्माण्ड यात्रा के बाद वही चैतन्यआज पृथ्वी पर खड़ा था। इस यान के यात्रीगण जिस जीवनी द्रवको पीकर जीवित थे, उसके एक-एक बूँद से शरीर को लाखों वर्षों तक पोषण मिलता था। इसके अलावे बारी-बारी से हजारों-लाखों वर्षों की नींद से भी वे खुद को तरोताजा रखते थे। अन्तरिक्ष में न तो उनके शरीर के कोशिकाओं की टूट-फूट होती थी और न ही उनकी उम्र बढ़ती थी।
            इसके आगे की कुछ बातें खुद ऋत्विक के शब्दों में-
            ‘‘..........जब हमलोग स्निग्धा ग्रह से रवाना हुए थे, तब हम अपने मस्तिष्क की क्षमता का 15 से 20 प्रतिशत अंश इस्तेमाल करते थे। उसी दौरान हमें यह पता चल गया था कि मस्तिष्क की क्षमताओं का हम जितना ज्यादा इस्तेमाल करेंगे, हमारी शारीरिक क्षमताएं उतनी ही कमजोर होती जायेंगी। काफी बहस के बाद स्निग्धावासियों ने प्रतिभा के विकासको नियंत्रित करना उचित नहीं माना और हम मस्तिष्क की क्षमता का ज्यादा-से-ज्यादा उपयोग करते रहे।
            ‘‘एक समय ऐसा भी आया, सम्भवतः तैंतीस प्रतिशत के आस-पास- जब मस्तिष्क के विकास को नियंत्रित करना हमारे बस में नहीं रहा। यह अपने-आप विकसित होने लगा। ..........आज जबकि हम अपने मस्तिष्क की क्षमता का 45 से 50 प्रतिशत अंश इस्तेमाल कर रहे हैं, हम सन्तान उत्पादन के योग्य नहीं रह गये हैं। यही स्थिति हमारे ग्रह पर भी है। गनीमत है कि वहाँ मृत्युको जीत लिया गया है। वर्ना, स्निग्धा आज एक वीरान ग्रह होता!
            ‘‘मस्तिष्क का विकास आज भी जारी है और उम्मीद की जा रही है कि अगले पच्चीस करोड़ वर्षों में हम अपने मस्तिष्क की क्षमता का शत-प्रतिशत अंश इस्तेमाल करने लगेंगे। ऐसा हो जाने पर हमारा भौतिक अस्तित्वशून्य हो जायेगा- हम सिर्फ ज्ञान रह जायेंगे। दूसरे शब्दों में- हम ब्रह्मबन जायेंगे।
            ‘‘यही कारण है कि कुछ समय पहले हमें हमारे ग्रह से आदेश मिला कि हम ब्रह्माण्ड के किसी भी कोने से ढूँढ़कर कुछ प्राणियों को स्निग्धापर बसने के लिए तैयार करें। ..........और यकीन कीजिये, कुछ पृथ्वीवासियों को हमारे साथ देखकर हमारे स्निग्धावासी बहुत ही प्रसन्न होंगे।’’
***
            कुछ दिनों बाद दुनियाभर के अखबारों में एक विज्ञापन छपा, जिसका आशय कुछ इस प्रकार थाः-
            ‘‘पृथ्वी से आठ करोड़ प्रकाशवर्ष दूर स्थित रमणीक ग्रह ‘‘स्निग्धा’’ पर बसने के लिए एक सौ पृथ्वीवासियों की जरुरत है। परिवारोंको प्राथमिकता दी जायेगी। ‘‘स्निग्धा’’ का वातावरण पृथ्वी- जैसा ही है और वहीं के अन्तरिक्षयान ‘‘चैतन्य’’ में यह यात्रा पूरी की जायेगी। यात्रा करीब चैबीस करोड़ वर्षों की होगी- मगर इस दौरान यात्रियों की उम्र एक सेकण्ड भी नहीं बढ़ेगी। यान में एक-एक नीन्द कई लाख वर्षों की होगी। जब तक आप जागेंगे, अन्तरिक्ष की खूबसूरती आपको बोर नहीं होने देगी- इसका भरोसा रखें। यात्रीगण अपने साथ पालतू पशु-पक्षी, वृक्षों के पौधे व बीज ले जा सकेंगे। इच्छुक व्यक्ति / परिवार सम्पर्क करें:-
            ‘तृतीय नेत्र
            चम्बल अन्तरिक्ष स्थल
            वृहत्तर भारत।’’
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(पुनश्चः चैतन्यको स्निग्धा ग्रह से पृथ्वी तक आने में 21 करोड़ वर्ष लगे, मगर वापसी की यात्रा प्रायः 24 करोड़ वर्षों की होगी, क्योंकि ब्रह्माण्ड का फैलाव सतत् जारी है।)

बुधवार, 7 सितंबर 2011

सोनाभील से एक प्रेम कहानी (उर्फ, उपन्यास का एक प्लॉट)


आसाम के तेजपुर शहर से कोई पन्द्रह किलोमीटर दूर, चाय बागान के किनारे बसी एक छोटी-सी बस्ती का नाम है- सोनाभील। सोनाभील टी एस्टेटमें काम करने वाले चाय-बागानी मुख्य रुप से इस बस्ती में रहते हैं।
यहीं कुसुम रहती थी। जब की यह कहानी है, तब उसकी उम्र सोलह-सतरह के करीब थी। वह एक साधारण लड़की थी।
            सन् चौहत्तर की बरसात।
हरे-भरे सोनाभील को बरसाती हवाओं के थपेड़ों, उमड़ते-घुमड़ते बादलों और रह-रह कर होने वाली बूँदा-बाँदी ने रमणीय बना रखा था। टी एस्टेट के मैदान में बिहूनाच की प्रतियोगिता चल रही थी। आस-पास के स्थानों से आई लड़कियों व नवयुवतियों की टोली बारी-बारी से बिहूनृत्य प्रस्तुत कर रही थी। चारों तरफ गोल घेरा बनाकर लोग आनन्द ले रहे थे।
            अपनी सहेलियों के साथ कुसुम भी एक किनारे खड़ी नृत्य देख रही थी। अपनी माँ के कहने पर उसने आज पहली बार साड़ी बाँधी थी, जो उससे सम्भल नहीं रही थी।
            अचानक हवा का एक तेज झोंका आया और उसके पल्लू ने उड़कर एक नवयुवक के चेहरे और माथे को ढँक लिया। वह नवयुवक पीछे कुर्सी पर बैठा बाजायानि रेकॉर्ड-प्लेयर बजा रहा था। हड़बड़ाकर उसने पल्लू हटाया और कुसुम की ओर देखा। कुसुम ने भी माफी माँगने वाले अन्दाज में उसे देखा। कुसुम के अल्हड़पन को देख वह नवयुपक हँस पड़ा। कुसुम बहुत शर्माई। बाद में उसकी सहेलियों ने उसे बताया- तेरे पल्लू ने उसका माथा ढका है, सो अब वह तेरा हो गया।   
            उस नवयुवक का नाम सोहनलाल था। उसके भैया बस्ती के महाजनव्यक्ति थे। लोग उन्हें लाला’  कहा करते थे। इलाके में उनकी अच्छी धाक थी। दसवीं पास करने के बाद सोहनलाल विज्ञान विषयों के साथ आगे पढ़ाई करना चाहता था। मगर उसके भैया-भाभी ने उसे घर के व्यवसाय में लगा दिया था। ऐसे भी, उसकी भाभी उसके प्रति सौतेला भाव रखती थी। इस प्रकार, पढ़ाई छोड़ सोहनलाल परचून की दुकान पर बैठने लगा था।
            ‘बिहूवाली घटना के बाद कुसुम और सोहन दोनों एक-दूसरे की तरफ आकर्षित हो गए। किसी-न-किसी बहाने दोनों आपस में मिलने लगे।
            कुछ दिनों की मेल-जोल के बाद जब सोहन ने कुसुम के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा, तो एकबारगी कुसुम को यकीन नहीं हुआ। बस्ती में, और आस-पास में, पहले ऐसी कई घटनाएं घट चुकी थीं, जब महाजन के घरों के लड़के शादी की बात कहकर चाय-बागानियों की लड़कियों के साथ शारीरिक सम्बन्ध बना लेते थे और बाद में उन्हें छोड़ देते थे। ऐसी लड़कियों की जिन्दगी खराब हो जाती थी। इसलिए एक ओर तो कुसुम डर रही थी, दूसरी ओर मन था कि सोहन के आकर्षण से मुक्त नहीं हो पा रहा था।
            कुछ महीने बीते। सोहन अब कुसुम के घर भी आने-जाने लगा था। कभी-कभी तो वह अपने घर जाने के बजाय वहीं रुक जाता। अंजाम वही हुआ जो ऐसे में होता है। कुसुम अब बिनब्याही सोहन के बच्चे की माँ बनने वाली थी।
            कुसुम के माता-पिता तो सीधे-सादे व्यक्ति थे, मगर उसका मामा एक खूँखार आदमी था। उसने दोनों को घर में घुसने से मना कर दिया। बस्ती से बाहर एक छोटी-सी झोपड़ी किराए पर लेकर दोनों वहीं रहने लगे।
            सोहन के भैया लाला को जब इसकी खबर लगी तो वे आग-बबूला हो उठे। लेकिन वे यह भी जानते थे कि सीधे-सीधे दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। अतः काम दिलवाने की बात कहकर उन्होंने सोहन को घर बुलवाया। वहाँ उन्होंने सोहन को एकबार राजस्थान चलने को कहा। सोहन समझ गया कि कुछ चाल है, मगर उसने यह भी देखा कि उसे काबू में करने के लिए दो आदमी पहले से घर में मौजूद हैं। वास्तव में लाला ने गुपचुप तरीके से राजस्थान में उसकी शादी तय करवा दी थी।
            सारा परिवार ट्रेन से रवाना हुआ। रात हुई। मगर सोहन की आँखों में नीन्द कहाँ? उसे तो कुसुम की चिन्ता खाए जा रही थी। आधी रात के वक्त जब सबकी आँखें लग गईं, एक छोटे-से स्टेशन पर वह चुपके से उतर गया। संयोग से वापस गौहाटी जाने की ट्रेन दूसरे प्लेटफार्म पर खड़ी थी। वह उसी में सवार हो गया।
            उसके जेब पैसे नहीं थे। किसी प्रकार, लोगों की सहायता से वह सोनाभील तक पहुँचा।
            इधर झोंपड़ी में कुसुम का रो-रो कर बुरा हाल था कि सोहन उसे मँझधार में छोड़कर कहाँ चला गया। उसे तरह-तरह के बुरे ख्याल आ रहे थे। ऐसे में किसी ने दरवाजा खटखटाया। खोलकर देखा तो हैरान परेशान सोहन खड़ा था। दोनों एक-दूसरे से लिपट कर खूब रोए।
            इधर ट्रेन से सोहन को गायब देखकर लाला सब समझ गए। अगले स्टेशन से उन्होंने सोनाभील में अपने रिश्ते के एक भाई राधेश्याम को फोन किया। योजना बनी। और थाने में रपट लिखा दी गई कि सोहनलाल घर के जेवर व नकदी लेकर फरार हो गया है। सोहन की खोज शुरु हो गई। सोहन को पता था कि थाने में पैसे दे दिए गए है, इसलिए उसकी नहीं सुनी जाएगी। तीन महीनों तक वह छुपता-छुपाता रहा।
            इस दौरान उसकी आर्थिक स्थिति काफी खराब हो गई। लोगों ने उधार देना बन्द कर दिया। उधर कुसुम के माँ बनने के दिन नजदीक आ रहे थे। ऐसे समय में एकदिन पुलिस सोहन को पकड़ कर ले गई।
            सोहन की गिरफ्तारी की खबर पाकर कुसुम उससे मिलने के लिए मानों पागल हो गई। उसने अपने माँ-बाप से मदद माँगी, पर वे असमर्थ थे। उनके पिता चाय बगान में पर्ची काटने का काम करते थे- इसी से किसी प्रकार उनके घर का गुजर-बसर चलता था। फिर उसने अपने मामा से मदद माँगी, मगर उसने साफ मना कर दिया।
            चारों तरफ से निराश होकर कुसुम पैदल ही तेजपुर शहर की ओर चल पड़ी। भूखी-प्यासी, गिरती-पड़ती वह किसी तरह जेल पहुँची। वहाँ जाकर उसने बताया कि वह सोहनलाल की घरवाली है और वह सोहन के साथ ही जेल में रहेगी। जेल के कर्मचारियों ने उसे समझाया कि ऐसा कोई नियम नहीं है। मगर कुसुम नहीं मानी। वह जिद पर अड़ गई और खूब रोने-धोने लगी। अन्त में उसे वहीं रहने दिया गया। छः दिन वह जेल में सोहन के साथ रही। सातवें दिन उसे जेलवालों ने समझाया कि अब घर जाओ, दो-एक दिनों में सोहन को रिहा कर दिया जाएगा।
            कुसुम लौट आई। मगर सोहन रिहा नहीं हुआ। इस बीच कुसुम ने एक बच्ची को जन्म दिया। इसके बाद वह फिर जेल पहुँच गई। कुछ कर्मचारियों ने पसीज कर उसे एक जमानती लाने का सलाह दिया।
            सोनाभील गाँव में लाला के डर से कोई भी व्यक्ति सोहन की जमानत भरने को तैयार नहीं था। अन्त में एक मुसलमान युवक ने सोहन की जमानत भरी। सोहन घर लौटा। बाद में केस झूठा होने के कारण वह रिहा भी हुआ।
            अब सोहन कुसुम और अपनी नन्हीं बेटी के साथ उसी झोंपड़ी में रहने लगा। मगर सिर्फ प्यार-मोहब्बत से तो जिन्दगी नहीं कटती। उसे काम की जरुरत थी और लाला के डर से कोई उसे काम देने को तैयार नहीं था। झोंपड़ीवाली अपनी किराया माँगने लगी। घर में दोनों में वक्त खाने का ठिकाना न था, उस पर एक छोटी-सी जान- आशा। हाँ, यही नाम था उस बच्ची का- आशा’!
            ऐसे बुरे वक्त को सही मौका जानकर लाला ने सोहन के पास अशोक नाम के एक आदमी को भेजा। सन्देश था- अब भी मौका है, कुसुम को छोड़ दो। अगर उससे शादी की, तो सम्पत्ति से बेदखल कर दिए जाओगे। साथ में, पैत्तृक सम्पत्ति में हिस्सेदारी नहीं माँगने का एक हलफनामा भी था। सोहनलाल ने उस हलफनामे पर दस्तखत कर दिए और कामाख्या मन्दिर जाकर रीति-रिवाजों के अनुसार कुसुम से शादी कर ली।
            अब सोहन के भैया ने सारी पैत्तृक सम्पत्ति बेच डाली और एक रोज रात के अन्धेरे में घरेलू सामान एक ट्रक में लादकर गाँव छोड़कर चले गए। सोनाभील गाँव का पैत्तृक मकान भी उन्होंने एक साहूकार को बेच दिया था।
            सोहन के भैया के गाँव से चले जाने के बाद अब जाकर गाँववालों ने सोहन का पक्ष लेना शुरु किया। गाँववालों ने ही उसके पैत्तृक मकान का ताला खुलवाकर सोहनलाल को उसमें प्रवेश दिलाया। हालाँकि जिस महाजन ने वह मकान खरीदा था, उससे अनबन भी हुई, मगर गाँववालों की एकता के आगे उन्हें झुकना पड़ा। तय हुआ कि सोहनलाल धीरे-धीरे उन्हें उनकी रकम वापस कर देंगे।
            इसी दौरान कुसुम ने दूसरी बेटी को जन्म दिया था। चुँकि कुसुम को सही पोषण नहीं मिल पाया था, इसलिए बच्ची भी कमजोर पैदा हुई। उसके हाथ-पैरों में थोड़ी विकृति थी। उसका नाम रखा गया- सुनीता। वह अपने माँ-बाप के सारे कष्टों को अपने ऊपर लेकर पैदा हुई थी। वह सही मायने में लक्ष्मी थी। जन्म लेते ही उसने अपने माँ-बाप को अपना घर दिला दिया। और इसके बाद सोहनलाल के दिन फिरने लगे।
            तेजपुर शहर से साईकिल में सामान लाकर आस-पास के गाँवों के दूकानदारों तक पहुँचाने का काम सोहनलाल ने शुरु किया। उसकी मेहनत और ईमानदारी रंग लाई। उसका काम बढ़ने लगा। घर में खुशहाली आने लगी।
            आज की तारीख में उनका अपना टेम्पो है, जिसमें वे सामान लाते हैं। उनकी तीन बेटियों- आशा, सुनीता और अम्बिका की शादी हो चुकी है। सबसे छोटी बेटी आरती कॉलेज में पढ़ाई कर रही है। बेटा विजय पिता के काम में हाथ बँटाता है। फरवरी (2011) में विजय की भी शादी हो गयी।   
            कोई भी आसाम के तेजपुर शहर से पन्द्रह किलोमीटर दूर सोनाभील गाँव जाकर उनसे मिल सकता है। जहाँ तेजपुर में, बल्कि सारे आसाम में, गँदले पानी की शिकायत आम है, वहीं श्री सोहनलाल अग्रवाल के घर में गड़ा चापाकल चमकदार साफ पानी देता है!
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आत्मकथ्य
1996 में जब मेरे पति वायु सेना स्थल, तेजपुर में पदस्थापित थे, तब हमलोग सोनाभील में श्री अग्रवाल के घर में किराएदार थे। वहाँ हम उनके पारिवारिक सदस्य के रुप में रहते थे। लेकिन फिर भी, हमने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की थी कि श्री अग्रवाल एक मारवाड़ी तथा श्रीमति अग्रवाल एक आसामी क्यों हैं। एकबार उनकी बड़ी बेटी आशा को देखने लड़केवाले आए। मैंने भी मेहमानबाजी में हाथ बँटाया। मेहमानों के जाने के बाद अचानक आशा की माँ रोने लगी। हमें कुछ समझ में नहीं आया। पूछने पर उन्होंने बताया कि जब यह लड़की छोटी-सी थी, तब हमारे घर में खाने के लाले पड़े थे। एक रोज घर में अनाज का एक दाना भी नहीं था.... और यह लड़की भूख के मारे चोकर खा रही थी। आज देखो- यही लड़की इतनी बड़ी हो गई है कि इसकी शादी होने वाली है। उस शाम लैम्प की धुंधलकी रोशनी में पत्थर की मूर्ति बनकर हमने उनके मुँह से उनकी आपबीती सुनी। जितना मुझे याद रहा और जैसा मुझसे बन पड़ा, मैंने लिखाऋ मगर मेरी इच्छा है कि कोई उपन्यासकार एक बार जाकर उनलोगों से मिले और उनकी आपबीती पर एक उपन्यास की रचना करे।
-श्रीमति अंशु शेखर
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(टिप्पणी: एयर फोर्स एसोशियेशन की गृहपत्रिका "ए.एफ.ए. न्यूज / ईगल्स आई" के अप्रैल'11 के अंक में यह रचना प्रकाशित हो चुकी है)